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निकालता है अंधेरों से रोशनी की किरन / मंजूर हाशमी

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निकालता है अँधेरों से रोशनी की किरन
बुझे दिलों को ज़ियाबार<ref>प्रकाश फैलाने वाला</ref> भी बनाता है

कोई सफ़ीना जो मौजों के नाम करता है
तू एक इस्म को पतवार भी बनाता है

बदलता रहता है वो इख़्तियार के मौसम
कि बादशाह को लाचार भी बनाता है

सुलगने लगते हैं जब धूप की तमाज़त<ref>सूरज की गर्मी</ref> से
धुएँ को अब्र-ए-गुबरबार<ref>मोती बरसाने वाला बादल</ref> भी बनाता है

शब्दार्थ
<references/>