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निगल गई वह लौह खण्ड / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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एक बार मैं पुण्यभूमि-
द्वारिका पुरी के तट पर
तैर रही थी दर्शन की
कामना लिए उर-अन्तर।
 एक बार मोहन की
 मोहक छवि दृग में फिर आती,
 तो जीवन की लता विहँसती
 अंग-अंग महकाती।
किन्तु सुना लहरों से
प्यारे मोहन मुरली वाले,
जाने वाले हैं जगती से
जगती के रखवाले।
दुर्वासा का शाप फलित
अब हाने ही वाला है,
व्याध-बाण बन हेतु
कृष्ण के लगने ही वाला है।
सुनकर काँपी और
क्रोध दुर्वासा पर आया था,
ऋषि होकर आचरण
अनैतिक क्योंकर अपनाया था।

 क्योंकर संयम की
 धारा को ऋषिवर रोक न पाये?
 सहिष्णुता-साधुता धर्म पर
 कण्टक बनकर छाये?
आत्म-संयमन हेतु शास्त्र ने
दिये विविध वर साधन,
जप-तप-पूजन, हवन, ध्यान,
सत्संग कीर्तन वन्दन,
 
 और पूर्ण जीवन ही जिसका
 संयम को अर्पित हो,
 तपबल से सम्बलित
 अपरिमित ब्रह्मतेज संचित हो,
फिर भी हो उत्फणित क्रोध
दुर्दम कुछ समय न आया,
उस अभेद्य अनवद्य ईश की
कैसी अद्भुत माया?
 जिसने जीवन रचा
 उसी ने रची मृत्यु भयकारी,
 करुणा के स्वर रचे
 उसी ने रची मधुर किलकारी,
वह चाहे तो अमरत का विष
विष का अमरत्व कर दे,
वह चाहे तो महासिन्धु
मृत्तिका-पात्र में भर दे।
 वह निर्बाध पूर्ण सत्ता
 व्यापक विधान वाली है,
 यथा समय कल्याण-
 परम कर करती रखवाली है।
शापित लौह-पात्र को
मोहन ने तिल-तिल घिसवाया,
और शेष लघु अंश
सिन्धु की लहरों में फिकवाया।
 देख रही थी मैं भी
 सबकुछ अपने युग-दृग खोले
 बचे हुए उस काल अंश को
 देख प्राण थे डोले।
सोचा काल-काल है
कुछ भी कभी घटित कर देगा,
जब चाहे तब कर युगान्त
घरती का सुख हर लेगा।
 
 प्राण रहें या जायें
 इसकी चिन्ता नहीं करूँगी,
 हरि सेवा के लिए
 उचित जो होगा वही करूँगी।
यही सोचकर शीघ्र तैर
डस ठौर चली आयी मैं,
निगल गयी वह लौह खण्ड,
थी मन में हरषायी मैं,
 किन्तु नियत का चक्र
 अटल कब कौन टाल पाया है?
 असफल सभी प्रयास हो गए
 कुछ न हाथ आया है।
हाय! प्राण देकर भी मैं
अनहोनी टाल न पायी,
मेरी जीवन-लीला
धीवर के कर गयी मिटायी।
 लौह खण्ड वह बना तीर
 ले गया बधिक हर्षित हो,
 मृग के धोखे पाद-पद्म पर
 किया प्रहार मुदित हो,
अगले ही क्षण देख दृश्य
अनिमेष रह गया, जड़-सा,
हुआ कलंकित जीवन सारा
गया धरा पर गड़-सा।
 अनहोनी हो गयी
 जलधि की लहर-लहर रोयी थी,
 जीवन की आनन्द धार
 चुपचाप कहीं खोयी थी।
प्राण विकल हो उठे
धरा की श्यामलता मुरझायी,
जीवन की रागिनी
वि रस है करुणा की अँगनाई.
 
 धरती-अम्बर दिग्दिगन्त
 बह उठे अश्रु धारा में,
 जीवन की रश्मियाँ
 छिप गयी क्रूर सघन कारा में।
देख-देख, दुख दृश्य
कलेजा मुँह को आ जाता था,
पाहन उर हो गया
घात फिर भी न सहा जाता था,
 हाय! राग अनुराग
 मोह-ममता सब विलख रहे थे,
 आज पत्थरों के भी आँसू
 अविकल छलक रहे थे।
हुआ अन्त युग का
अनन्त हो गये किन्तु मन मोहन,
पा जिनका आलोक हो गया
 आलोकित जग-जीवन
 अक्षर-मोहन मोहन-अक्षर
 मिलकर हुए अनश्वर
 गीता के गायक युगनायक
 युगाधार यागेश्वर।
सकल शास्त्र अम्बुधि-
मन्थन का सुधा कलश गीता है,
मरता नहीं कभी जीवन में
जो इसको पीता है।
 गीता है वह तत्व
 कि जिसकी विभा अखण्ड अमित है
 वेदों उपनिषदों की
 प्रतिभा प्रभा मनोज्ञ मुदित है।
कभी-कभी गीतामृत का
कर पान तृप्ति पायी हूँ,
गंगा-यमुना की लहरों से
मैं सुनती आयी हूँ।
 
 मोहन की बाँसुरी-
 रूपमाधुरी और श्री गीता,
 इनके बिना जगत का जीवन-
 कलश सदा है रीता।
जीवन में जब कभी
उलझनें मुझको कस लेती हैं,
शान्ति हरण कर मन की
पीड़ा असहनीय देती हैं,
तब मैं कर संकल्प
श्याम को मन ही मन गुनती हूँ ब्रह्मवादिनी लहरों से
श्री गीता जी सुनती हूँ।
आलोकित होता है
मेरा मनाकाश निर्मल हो,
जीवन का माधुर्य
विहँस उठता है फिर उज्ज्वल हो।