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निगाहे-शम्स-ओ-क़मर भी जहाँ पे कम ठहरे / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी

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निगाहे-शम्स-ओ-क़मर <ref>सूर्य और चाँद की दृष्टि </ref> भी जहाँ पे कम ठहरे
उसी मक़ाम पे राहे-तलब में हम ठहरे

हज़ार संगे-गिराँ माय: थे तराशीदा
जो बुतकदे में सजाए गए सनम ठहरे

जहाँ पे रुक के दमे-इल्तिफ़ात घुटता है
न जाने क्यों उसी मंज़िल पे आ के हम ठहरे

मेरे नसीब ने यूँ भी मुझे नवाज़ा है
सितम ज़माने के मेरे लिए करम ठहरे

न रंग-रूप की वादी न हुस्ने-फ़िक्रो-ख़याल
ये क्या मकाम पे यारब मेरे क़दम ठहरे

हम उस जहान में रहते हैं दोस्तो कि जहाँ
ख़ुशी भी ग़म में पले ग़म तो ख़ैर ग़म ठहरे

मेरे ख़याल का हैरतकदा सँवर जाए
जो मेरे दर पे तेरा आख़िरी क़दम ठहरे

ख़ुशी से मर न सकूँ ये भी क्या महब्बत है
ख़ुदा करे तेरा मिलना मेरा भरम ठहरे

अज़ल से हैं ग़मे-दौराँ के हमरकाब ऐ ‘चाँद’
जहाँ रुका ग़मे-दौराँ वहीं‍ पे हम ठहरे

शब्दार्थ
<references/>