भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निगाहों का मर्कज़ बना जा रहा हूँ / जिगर मुरादाबादी
Kavita Kosh से
निगाहों का मर्कज़ <ref>केन्द्र</ref>बना जा रहा हूँ
महब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ
मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोशे-दरिया<ref>समुद्र की गोद में</ref>
अज़ल<ref>प्रारब्ध</ref> से अबद<ref>अनन्त</ref> तक बहा जा रहा हूँ
वही हुस्न जिसके हैं ये सब मज़ाहिर<ref>अभिव्यक्तियाँ</ref>
उसी हुस्न से हल हुआ जा रहा हूँ
न जाने कहाँ से न जाने किधर को
बस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँ
न इदराके-हस्ती <ref>जीवन का विवेक</ref>न एहसासे-मस्ती<ref>मस्ती की अनुभूति</ref>
जिधर चल पड़ा हूँ चला जा रहा हूँ
न सूरत<ref>रूप</ref> न मआनी <ref>अर्थ</ref>न पैदा<ref>प्रत्यक्ष</ref>, न पिन्हाँ<ref>छिपा हुआ</ref>
ये किस हुस्न<ref>सौंदर्य</ref> में गुम हुआ जा रहा हूँ
शब्दार्थ
<references/>