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निगाह-ए-यार पे पलकों की अगर लगाम न हो / मोहसिन नक़वी

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निगाह-ए-यार पे पलकों की अगर लगाम न हो
बदन में दूर तलक ज़िन्दगी का नाम न हो

वो बे-नकाब जो फिरती है गली कूंचों में
तो कैसे शहर के लोगों में क़त्ल-ए-आम न हो

मुझे यकीं है कि दुनिया में दर्द बढ़ जाएँ
अगर ये पीने पिलाने के एहतमाम न हो

बिठा के सामने बस देखता रहूँ उस को
इस के सिवा मुझे दुनिया का कोई काम न हो

जो उसको देख ले अफताब एक नज़र 'मोहसिन'
मेरे शहर की गलियों में कभी शाम न हो