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निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है / अलीम 'अख्तर'
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निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है
मोहब्बत और महकम हो गई है
तबीअत कुश्त-ए-ग़म हो गई है
चराग़-ए-बज़्म-ए-मातम हो गई है
मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है
मुसर्रत हासिल-ए-ग़म हो गई है
तमन्ना जब बढ़ी है अपनी हद से
तो मायूसी का आलम हो गई है
न जाने क्यूँ अदावत ही अदावत है
सरिश्त-ए-इब्न-ए-आदम हो गई है
है महव-ए-रक़्स हर बर्ग-ए-चमन पर
बड़ी बे-बाक शबनम हो गई है
हँसी होंटों पर आते आते 'अख़्तर'
पयाम-ए-गिर्य-ए-ग़म हो गई है