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निघरघट. / हरिऔध
Kavita Kosh से
कर सकेगा नहीं निघरघटपन।
जिस किसी में न लाज औ डर हो।
जब बड़ों की बराबरी की तो।
आँख कैसे भला बराबर हो।
नामियों ने नाम पाकर क्या किया।
किस लिए बदनामियों से हम डरें।
मुँह भले ही लाल हो जावे, मगर।
क्यों न अपनी लाल आँखें हम करें।
वे बने बाल फ़ैशनों वाले।
जो मुड़े भाल पर लटकते हैं।
देखता हूँ कि आँखवालों की।
आँख में बेतरह खटकते हैं।
तब भला सादगी बचे कैसे।
जाय संजीदगी न कैसे टल।
जब लगायेंगे दाँत में मिस्सी।
जब घुलायेंगे आँख में काजल।
है बहुत पूच और छोटी बात।
जो चले मर्द औरतों की चाल।
कब करेंगे पसंद अच्छे लोग।
काढ़ना माँग औ बनाना बाल।