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निज़ामुद्दीन-12 / देवी प्रसाद मिश्र
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ये मेरी हसरत का वाक़या है तुम्हारी हसरत भी जान लूँ मैं ।
किसी सड़क पर अगर मिलो तो ये सूखी रोटी ही बाँट लूँ मैं ।
ये किस तरफ़ से निकल पड़े हो बहुत ख़ुशी तो कभी नहीं थी,
जो देखा ऊपर तो देखा नीचे कि कैसे रहते कि छत नहीं थी ।
अभी किसी से कहूँ तो क्या कि कहाँ से मैंने शुरू किया था,
जो हाथ लिखता है वो हाथ मैंने किसी को यूँ ही क्यूँ दे दिया था ।
ये क़िस्सा इतना है जितना जानो ये मेरे हिस्से की रोशनी है,
ये मेरी चादर है, तेरी चादर बहुत पसीने में खूँ सनी है ।