भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निज़ामुद्दीन-13 / देवी प्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
वो तुमने किस तरह देखा मैंने तो यूँ देखा,
तुमने क्या देखा जहाँ मैंने बदायूँ देखा ।
तुम तो न्यूयार्क या इस्तानबुल या पिक्काडिली,
मैंने इलाहाबाद न देखा तो क्यों हर सू देखा ।
मैं जो दाख़िल हुआ उस माल में बेगाना-सा
मैंने यक बोझ के नीचे फँसा-सा कूँ देखा ।
तुमने भी देख लिया मेरा अकेला पड़ना,
मैंने जो ख़ुद को हटाया तो मैंने हूँ देखा ।
जिस तरह ख़त्म हुआ जश्न तो फिर शक भी हो,
तुमने जो दाँत दिखाया तो मैंने खूँ देखा ।
मैंने जो देख लिया तो जो मेरा हाल हुआ,
मैं भी कहता हूँ निज़ामुद्दीन मैंने यूँ देखा ।
मैं भी क्यों हद में नहीं और ये मेरा बेहद,
क्यों मैंने इश्क़ न देखा जो मैंने तूँ देखा ।