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नित्य ही प्रभात में पाता हूं प्रकाश के प्रसन्न स्पर्श में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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नित्य ही प्रभात में पाता हूं प्रकाश के प्रसन्न स्पर्श में
अस्तित्व का स्वर्गीय सम्मान,
ज्योतिः स्रोत में मिल जाता है रक्त का प्रवाह मेरा,
देह मन में ध्वनित हो उठती है ज्योतिष्क की नीरव वाणी।
प्रतिदिन ऊपर को दृष्टि किये
बिछाये ही रहता हूं आँखों की अंजलि मैं।
मुझे दिया है प्रकाश यह जन्म की प्रथम अभ्यर्थना ने,
अस्त सागर के तीर पर उस प्रकाश के द्वार पर
बना रहेगा मेरा जीवन का निवेदन शेष।
लगता है ऐसा कुछ
वृथा वाक्य कहता हूं, पूरी बात कह न सका;
आकाश वाणी के साथ आत्मा की वाणी का
बँधा नहीं स्वर अभी पूर्णता के स्वर में,
करूं क्या, भाषा नहीं मिली जो।

‘उदयन’
प्रभात: 1 दिसम्बर, 1940