भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नित घड़ूं आखर रा भाखर म्हैं / सांवर दइया
Kavita Kosh से
नित घड़ूं आखर रा भाखर म्हैं
असल में हूं आखर रो चाकर म्हैं
जात है मिनख अर औ रगत लाल
बूंद हूं म्हैं खुद, खुद ई सागर म्हैं
म्हारा स्सै सुपना रेत में रळग्या
जीवूं बण ‘डाची’ रो ‘बाकर’ म्हैं
धरती पोढ्यो अर आभो ओढ्यो
घर थकां रैयो सदा ना-घर म्हैं
प्रीत रै पगोथियै स्सै सरखा
सुणू सांस री अजान-झालर म्हैं