नित दिनकर आया करता है / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
नित दिनकर आया करता है
आसमान के रंच मंच पर
विमल चन्द्र मुसकाया करता
नित सन्ध्या आया करती है,
तम में निज मुख चन्द्र छिपाये
जीवन की इस चंचलता पर
मेरा अन्तर क्यों घबराये?
रूक जाती जब साँस वायु की
तो तूफान भयंकर आता
जीवन की गति रूक जाने पर
प्रलय राग प्रलयंकर गाता
राजमहल से झोंपड़ियों तक
अपनी डफली मौत बजाती
मिटते रहने पर भी सन्ध्या
नित तारों से रात सजाती
वही पराया बन जाता, जग
जिसको हृदय खोल अपनाता
तो इन छोटी सी बातों पर
मेरा अन्तर क्यों घबराता?
इस सँकरी पगडंडी पर पग
सँभल सँभल कर रखता जा तू
पथ में मिलनेवालों के अन्तर
का मर्म समझाता जा तू
प्रकृति पुरूष के क्रीड़ा - स्थल का
मोहक चित्र निरखता जा तू
इस जीवन में जो भी कटु-मधु
मिलता जाता, चखता जा तू
रखता जा बस ध्यान कि मन उस
उलझन में न उलझने पाये
जल में कमल समान रहे तो
मेरा अन्तर क्यों घबराये