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निन्न ने टूटए / राजकमल चौधरी

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राति अन्हार अछि, काँपइए थर-थर बिजुरी, मेघ, गगन
दिशा ने सूझए
घाट-बाट आँतर-पाँतर बड़-पीपर बाघ बोन गाछी-बिरछी
अछि अन्हारमे डूबल सभ कन-कन
छोडू़ बहिर्जगत के चिन्ता
करू ने गृहसँ बहार भए जग देखबाक सेहन्ता
सीरक ओढ़ि, लगा मसनद, करू काव्य-चिन्तन
करू गज-गामिनि कामिनि आगमन-प्रतीक्षा
लिअ प्रेम के दीक्षा

निन्न ने टूटए!
पिता-पुत्र-कलत्र-परिजन-पुरजन नोन तेल तरकारीमे
लागल रहि जाउ
बड़द बनल, साधारण सुख-सुविधाके टूटल गाड़ीमे
जोतल रहि जाउ
मायक रोग, हँसी भउजीके, धर्मपत्नीके फाटल साड़ीमे
बान्हल रहि जाउ
दरबज्जा पर बइस रचू शतरंज, तास
बाड़ीमे रोपू भाँटा, पिआजु-लहसुन सोल्लास
गाम टोलके राजनीतिमे सदिखन लीन रहू
गामक-पोखरिमे बोहिआइत मीन रहू
खबासिन बहिकिरनीसँ सीखू वात्सायनके काम-सूत्र अनुभव
वृद्ध करू बाप-पित्तीके अरजल बैभव
भँवरमे डूबए देशक नाह
भय जाय सभ्यता आ संस्कृति सुड्डाह
निन्नने टूटए!
कोनो दुख नइँ, किछु कलेस नइँ, कोनो बेथा नइँ
कान दए सुनू समाजके कष्ट-कथा नइँ
भोजनो घरिक आसरा छूटए
घर-दुआर, आँगन, टोल, गाम, देश भने सभ टूटए,
मुदा, अहाँके निन्न ने टूटए कखनउँ
अप्पन टूटल खाट ने छूटए कखनउँ
हे कुम्भकर्ण!
बनि के सकइ छी अहाँ महारथी कर्ण
बनि ने सकइ छी कर्णक गुरु परशुराम
बनि ने सकइ छी मर्य्यादापुरुषोत्तम राम
कर्ण जकाँ कए ने सकब वचनक रक्षा, रए सभ किछु दान
परशुराम बनि फरसा उठाए करब ने सोनितगंगामे स्नान
राम जकाँ नइँ करब रावणक नाश

-हमरा होइए एतबा घोर निराशामय विश्वास
देश, भाषा रक्षार्थे अछि बाजि रहल युद्धक डंका
सूतल छी अहाँ, बुझइ छी, अछि देश अहाँक लंका
हे कुम्भकर्ण!
देश-जाति-गौरव बिसरि कए भए गेलउँ अहाँ अवर्ण
भए गेलउँ अहाँ शिखण्डी, ने पुरुख ने नारी
भए गेलउँ मरण निद्राके व्यापारी

निन्न ने टूटए!