भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निपात / मोना गुलाटी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती पर रेंगता है आदमी का धब्बा
सुराख़ों में लुप्त होने के प्रयास में ।
मैंने सभी धब्बों पर जड़ दी हैं बन्दूक़ें और गोलियाँ

क्षितिज में भरा कुहासा
ख़ून में डूबकर
पागल की तरह फैल गया है बंजर और
निर्वासित द्वीपों में ।

सड़क की चिकनी धूप के साथ दौड़ता है
एक लड़का
अन्धी गुफ़ाओं की खोज में
बनैले सूअरों और ख़ूँख़ार दैत्यों का शहर
बहुत पीछे छूट गया है ।
उसे खोजने से क्या होगा
कापालिकों की बस्ती में ।

नरमुण्ड पहने हुए और नाचते हुए और भागते हुए
अपने कण्ठ को समूचा निगल जाती हूँ और
अनजाने छू लेती हूँ विवस्त्र शिवलिंग ।

छाती में होता है विकम्प
और प्रकम्पन से
अर्राता है एक रीछ
जंगलों को ढूँढ़ता हुआ ।

बस्तियों और क़स्बों के लिए काट दिए गए हैं
जंगल। और वीरान शहरों में मुट्ठियाँ भींचे घूमते हुए मैं
अचानक उदास होकर फूट जाती हूँ
दरारों में
और देखती हूँ भुनते हुए चूज़ों को ।