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नियति / महेन्द्र भटनागर

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मझधार में बहते हुए

बस, देखते जाओ

किनारे-ही-किनारे,

पर नहीं,

वे बन सकेंगे

एक दिन भी

तुम थके-हारे

अकेले के

सहारे !


क्योंकि वे अधिकृत,

तुम अवांछित !

सतत बहते रहो,

प्रतिकूलता

सहते रहो !