भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नियति / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मझधार में बहते हुए
बस, देखते जाओ
किनारे-ही-किनारे,
पर नहीं,
वे बन सकेंगे
एक दिन भी
तुम थके-हारे
अकेले के
सहारे !
क्योंकि वे अधिकृत,
तुम अवांछित !
सतत बहते रहो,
प्रतिकूलता
सहते रहो !