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नियागरा की शाम / मधुप मोहता

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गुज़र रहा था हर इक नज़र से पानियों का कारवां
वो नियागरा की शाम थी, फिजा में कुछ खुमार था
कई हसरतें लिए हुए वो खड़ी हुई थी उदास सी
बड़ी आरज़ू से छू गया, उसे एक झोंका बहार का .

कई रंग थे कई रूप थे, कभी छाँव थी कभी धुप थी
बड़ा शोख था मेरा हम सफ़र, कभी दोस्त था कभी अजनबी
मैं भंवर बना खड़ा रहा, वो लहर लहर चला गयी
कि बना रहे ये फासला, ये फैसला था प्यार का

वो सच था या कोई ख्वाब था, कि फरेब था या सवाल था
मेरे साथ चल रहा था जो, वो इक हसीं ख्याल था
मुझे छोड़ के वो चला गया, जो गया तो फिर मुड़ा नहीं
मुझे मुझसे चुरा के ले गया, मैं कैद था वो फरार था .

वो शिकायतों की शाम थी, ये वायदे की रात है
मेरा हम सफ़र इस सफ़र में, फिर आज मेरे साथ है
वो मिला नए मिजाज़ से, बड़े बांक पन से कह गया
वो नियागरा की शाम थी, गया वक़्त फिर गुबार है

नया शहर है नए दोस्त हैं नए काफिले नयी मंजिलें
नए हमसफ़र नयी हसरतें, नयी ख्वाहिशें नए सिलसिले
मैं नियागरा की शाम को, किस तरह भुलाऊं अब
बड़े कायदे से निभाउंगा जो नियागरा का करार था

जा बन हवाओं का हमसफ़र, और उड़ नए अंदाज़ से
कभी डर लगे इस सफ़र में नए मौसमों के मिजाज़ से
तो याद करना नियागरा की शाम के करार को
वो हमसफ़र तेरे साथ जो, किसी रौशनी पे सवार था