निरंकुश / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
मलय सागर के पार एक बन्दर है श्वेतांगनियों का
इस पर कि मैंने समुद्र पृथ्वी पर बहुत देखा है-
नीलाभ पानी की धूप में क्वालालम्पुर, जावा, सुमात्रा, इण्डोचीन, बाली
बहुत घूमा मैं-उसके बाद यहाँ देखता हूँ बादामी मलयाली
समुद्र की नील मरुभूमि देखकर रोते हैं पूरे दिन।
सादे-सादे छोटे घर-नारियल कुंज के भीतर
दिन के वक़्त और गाढ़े सफे़द जुगनू की तरह झिलमिलाते हैं
श्वेतांग दम्पत्ति वहाँ समुद्री केकड़े की तरह
समय पुहाते हैं, मलयाली डरते हैं भ्रान्तिवश
सागर की नील मरुभूमि देखकर रोते हैं पूरे दिन।
कारोबार से बातें कर-शताब्दी के अन्त में
अभ्युत्थान शुरू हुआ यहाँ नीले सागर के कमर के हिस्से पर,
व्यापार के विस्तार में एक रोज़
चारों ओर पाम के पेड़-दारू का घोल-वेश्यालय, सेंकों, किरासन,
समुद्र की नील मरुभूमि रोकता रहता है पूरे दिन।
पूरे दिन सुदूर धुएँ और धूप की गरमी से चिढ़कर
उनचास पवन फिर भी बहती है मस्त होकर, विकर्ण हवा-
नारिकेल कुंज में सफे़द-सफे़द घरों को रहती ठंडा किए
लाल कंकर का पथ, गिर्जा का रक्तिम मुण्ड दिखाई देता है हरे फाँक से
समुद्र की नील मरुभूमि देखती है नीलिमा में लीन।