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निरर्थक हो गया जीवन हमारा / विवेक बिजनौरी
Kavita Kosh से
निरर्थक हो गया जीवन हमारा,
कहीं लगता नहीं अब मन हमारा
समझदारी का शातिर चोर हमसे,
चुरा कर ले गया बचपन हमारा
क़दम पड़ते ही उस बाद-ए-सबा के,
महक उट्ठा है घर आँगन हमारा
बहुत दिन हो गए सँवरा नहीं वो,
बहुत मायूस है दर्पन हमारा
हमें भाती है उसकी सादगी और,
उसे भाता है भोलापन हमारा
हुआ यूँ आख़िरश इक रोज़ उसने,
हमें लौटा दिया कंगन हमारा
ख़िज़ाँ से क्या गिला कैसी शिकायत
बहारें खा गयीं गुलशन हमारा