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निरवान / 'बाकर' मेंहदी
Kavita Kosh से
इक ख़ुश्बू दर्द-ए-सर की मुरझाई कलियों को खिलाए जाती है
ज़ेहन में बिच्छू उम्मीदों के डंक लगाते हैं
हिचकी ले कर फिर ख़ुद ही मर जाते हैं
दिल की धड़कन सच्चाई के तल्ख़ धुएँ को गहरा करती पैहम बढ़ती जाती है
पेट में भूक डकारें लेती रहती है
फिर रग रग में सूइयाँ बन कर भागी भागी फिरती हैं
पूरे जिस्म में दर्द का इक लावा सा बहता रहता है
ऐसा मुझ को लगता है
जैसे मैं
आख़िरी क़य में दुनिया की सारी ग़िज़ाएँ ख़्वाब ओ हक़ीक़त की आलाइश
आदर्शों की मीठी शराबें
ये जीवन
सारा का सारा उगल दूँगा
शायद मुझ को इस लम्हे निरवान मिले