भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निराला के नाम / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रे निराला !
क्यों तूने उस पगडंडी को चुना,
जो अजगर के मुंह में खत्म होती है?
क्यों तू ने बुना,
भविष्य का एक सुखद सपना
उस दिशाहीन समाज के लिए,
जो अपने ही स्वार्थ में घिरा
अंध कूप में गिरा जा रहा था।
क्यों तूने अपनी उम्र के अनमोल दिन,
गूंगी,
बहरी,
और
अहसान फरामोश पोढ़ी को
संवारने में गंवा दिए?
जिसने तुझे,
रोटी और लंगोटी तक के लिए
तरसा कर रख दिया।

रे निराला !
क्यों रची कविताएं,
भुस भरे दिमागों के लिए?
वे कविताएं जिनको लिखने में तूने
आंख की जोत,
अंगुलियों के पोर
आखा जन्म ही गंवा दिया।
कौन संजो कर रखेगा ?
शायद, दीमक को तरस आए
वो भेज देगी तुम को
तुम्हारी कृतियां।
निश्‍चेत,
निश्‍चित,
सो मत जाना ;
बाट देखना।
तूने शब्द-शब्द लिखा था ;
वर्ण-वर्ण सम्भाल लेना।