भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निराला को याद करते हुए / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
उठता हाहाकार जिधर है
उसी तरफ अपना भी घर है
खुश हूँ - आती है रह-रहकर
जीने की सुगंध बह-बहकर
उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा
सोच रहा हूँ रुका-रुका-सा
गोली दगे न हाथापाई
अपनी है यह अजब लड़ाई
रोज उसी दर्जी के घर तक
एक प्रश्न से सौ उत्तर तक
रोज कहीं टाँके पड़ते हैं
रोज उधड़ जाती है सीवन
'दुखता रहता है अब जीवन'