भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निराली धुन / हरिऔध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिल गई होती हवा में ही तुरत।
चाहिए था चित्त वह लेती न हर।
जो उठी उस से लहर जी में बुरी।
तो गई क्यों फ़ैल गाने की लहर।

सुन जिसे मनचले बहक जावें।
मन करे बार बार मनमाना।
क्यों नहीं वह बिगड़ बिगड़ जाता।
दे भली रुचि बिगाड़ जो गाना।

कान से सुन गीत पापों के लिए।
जो न पापी आँख से आँसू छना।
ढंग लोगों का बना उस से न जो।
तब अगर गाना बना तो क्या बना।

कंठ मीठा न मोह ले हम को।
है बुरा राग-रंग का बाना।
सुन जिसे गाँठ का गँवा देवें।
है भला गठ सके न वह गाना।

जो बुरे भाव भर दिलों में दे।
कर उन्हें बार बार बेगाना।
सुन जिसे पग सुपंथ से उखड़ें।
क्यों नहीं वह उखड़ गया गाना।

जब हमें ताक ताक कान तलक।
काम ने था कमान को ताना।
जब जमा पाँव था बुरे पथ में।
तब भला किस लिए जमा गाना।

सुन जिसे बार बार सिर न हिला।
लय न जिस की रही ठमक ठगती।
तब भला गान में रहा रस क्या।
तान पर तान जो न थी लगती।

दूसरे उपजा नहीं सकते उसे।
है उपजती जो उपज उर से नहीं।
पा सकेगा रस नहीं नीरस गला।
गा सकेगा बेसुरा सुर से नहीं।

रात दिन वे गीत अब सुनते रहें।
चाव से जिनको भली रुचि ने चुना।
रीझ रीझ अनेक मीठे कंठ से।
आज तक गाना बहुत मीठा सुना।

चाहते हैं हम अगर गाना सुना।
तो भले भावों भरा गाना सुनें।
चौगुनी रुचि साथ सुनने के लिए।
गीत न्यारा रामरस चूता चुनें।

तब भला किस लिए बजा बाजा।
जब न भर भाव में बहुत भाया।
जब सराबोर था न हरिरस में।
गीत तब किस लिए गया गाया।