भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निरावरण आचरण / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी
Kavita Kosh से
औरतों को, मर्दों ने
सौन्दर्य-बोध का सर्वोत्तम
प्रतीक मान कर भी,
इतिहास के सभी दौरों में
उन्हें व्यक्तिगत और
सामूहिक क्रूरताओं के लिये
क्यों चुना?
किसी भी सभ्यता के पास इसका
कोई उत्तर नहीं है
क्योंकि हर सभ्यता पर
पुरुषों की पाशविकता हावी
रही है।
इतिहास के हर युग ने
इन क्रूरताओं को चुपचाप सहा है
सच तो यह है कि
औरतों पर अत्याचारों का
बहुत-सा इतिहास
कहीं लिखा ही नहीं गया है।
ऐसा क्यों हुआ कि
हम, सदी-दर-सदी
सभ्यता की नई-नई
सीढ़ियाँ तो चढ़ते रहे
पर औरतों के प्रति
निरन्तर
बर्बर ही बने रहे
शायद हम
अन्दर से और
मूल रूप से
बर्बर पुरुष ही रहे,
बस ऊपर से कभी
हमारे आचरणों पर
शिष्टता और संस्कृति के
मोटे-मोटे आवरण रहे
तो कभी हमारे आचरण
बिल्कुल निर्लज्ज,
सरे आम
निरावरण रहे।