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निरूपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ / हरप्रीत कौर

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एक

निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ
सच-सच बतलाना नीरू
इतनी बड़ी दुनिया के
इतने सारे शहर छोड़ कर
तुम वापिस चंडीगढ़ क्यों लौट जाना चाहती थी
चंडीगढ़ जैसे हसीन शहर में
अपने उन दुखों का क्या करती हो नीरू
जो तुमने दिल्ली जैसे क्रूर शहर से ईजाद किए थे

लंबे समय के बाद
तुम्हें खत लिखते हुए
सोच रहा हूँ
तुमने उस बरसाती का क्या किया होगा
जिसने हमें भीगने से बचाए रखा

नीरू
क्या इतने बरस बाद भी
तुम मुझे उसी हमकलम दोस्त की तरह नहीं देखती
जो तुम्हारे सारे दुखों को कम करने के लिए
लड़ सकता है
अब भी
 
वह शहर कैसा है नीरू
जहाँ हमें कुछ बरस और
साथ रहना था
बिना किसी शर्त के
यहाँ हमारे हिस्से की
बहुत सी हिचकियाँ पालथी मारे बैठी हैं
हमारे साथ चलने को
यहाँ से आधी रात गए
एक अल्हड़ जवान लड़का
एक शोख नटखट लड़की से मिलता है
 
जहाँ किसी पेड़ पर एक लड़की ने लिखा है
‘मैं तुम्हें उस तरह नहीं जाने दूँगी
जैसे तुम चले जाना चाहते हो’
और कौन जाने वह लड़का चला गया हो
इतने बड़े शहर में
पेडों पर किसी का लिखा
कौन पढ़ता है नीरू
 
पढ़ भी ले तो भी
किससे कहेगा जा कर कि देखो
बरसाती के पेड़ के नीचे वहाँ
तुम्हारे लिए कोई संदेश छोड़ गया है
 
इस शहर से कहीं और जाने का
बिल्कुल न कहूँगा
इसी शहर के
अंधाधुध ट्रैफिक की लाईन में खड़ी
तुम्हारी गाड़ी की जलती-बुझती बत्ती देख कर
पूछना चाहता हूँ
‘इतनी ठंड में कहाँ जा रही हो नीरू
 
फिर लौट आता हूँ
तुम्हारी आँखे कहती हैं
‘कहीं नहीं बस थोड़ा मन बदलने निकली हूँ’
तुम्हारी तरह कुछ दिनों से मैं भी
बहुत उदास हूँ
 
दो
 
एक दिन
जब नींद में होगी तुम
मैं तुम्हारे सब उधड़े दिन सिल दूँगा
 
तुम आओगी
तो
कितने शहर दिखाऊँगा तुम्हें
हर शहर में थोडा रूकेंगे
बस लाल बत्ती होने तक
एक दूसरे के पैरों में
चिकोटियाँ काटते हुए
कौन जाने इस अंधे सफर में
हमारे पैर किस क्षण सो जाएँ
(कुमार विकल को पढ़ते हुए निरूपमा दत्त के लिए)