भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निर्धनता की आस / रचना उनियाल
Kavita Kosh से
मात हिय मंथन की है धूप, देखती है वह आशा कूल।
लाँघ जब चौखट माँ का रूप, खिलेगा कुटिया का तब फूल।।
आज है कष्टों की बारात, साथ है श्रम का भी भरपूर।
चलेगा शिक्षा पथ दिन-रात, बनेगा फिर समाज का नूर।।
हमारी विपन्नता का काल, काट डालेगा संतति मूल।
मात हिय मंथन की है धूप, देखती है जब आशा कूल।
बुझेगी तभी गरीबी आग, करेगा महलों पर तू राज।
भूलना नहीं लाल ये बाग, बनेगा जब कोई सरताज।।
रहेगा सदा सहायक बाल, छोड़ना गर्व भावना धूल।
मात हिय मंथन की है धूप, देखती है जब आशा कूल।
निराशा रहे आस के संग, यही तो है जीवन का बंध।
झेल ले पीड़ा का हर रंग, तभी जानेगा अंतह गंध।।
भाव में माता का प्रतिरूप, दूर हो जाएँगे सब शूल।
मात हिय मंथन की है धूप, देखती है जब आशा कूल।