निर्भयत्व / बसन्तजीत सिंह हरचंद
अयि, गीते !
है एक ओर निर्जीव- निरीह मनोबल ,
दूसरी ओर अत्याचारों के दल - बादल ।
है एक ओर हत हा ! हा ! हाहाकार अबल ,
दूसरी ओर ललकारों का अभिमान प्रबल ।
है एक ओर उत्साह गिरा -बिखरा कर से ,
दूसरी ओर गिरने को वज्र उठा कर में ।
इन दोनों के शिर पर निश्चय
गीते ! करता घन - गर्जन महाशब्द तेरा ---
निर्भय --- निर्भय ----
निर्भय तोड़ नभ की सीमाओं का घेरा ;
निर्भय ---- निर्भय ----
यह शब्द गूंजता गीता के नभ में अक्षय ,
यह शब्द गूंजता गीता का नभ में अक्षय ;
ज्यों पांचजन्य ।
यह शब्द दुर्जनों के मन में भय भरता है ,
यह शब्द सरल मानस को निर्भय करता है ।
कहता है ---"अपनी रक्षा कर
निज अधिकारों को छीन दूसरे के मुख से ।
मत सोने दे उसको सुख से ,
जिस घर की बगिया हंसे दूसरों को दुःख दे ।
चाहे सम्मुख हों षडरिपु
अथवा शत सहस्र ,
तुम जूझ लड़ो इनसे मर जाओ क्षण में जा ;
तुम विजित करो इनको अपने जीवन में या ।
फिर काल कंठ में विजय तुम्हारे पहनायेगा ,
यश गायेगा ।
गीते ! अब तू नहीं मात्र धनियों की
मेजों पर शोभा बन के रहने वाली ,श्रृंगार ;
नहीं सिद्ध - संतों के कंठों की केवल झंकार
नहीं क्षत्रियों के कर में करवाल - भार
और नहीं पंडों के गल की हार ।
भूत -काल में तू विद्वन - मंडली में
शुष्क तर्क की थी मौखिक व्यापार ।
वर्तमान में अब दुर्बल हाथों में ,
तू है कर्म - हथौड़े का दृढ वार ।
अब तू निर्धन का साहस, है ढाल ,
एकमात्र इसके ही उर की शक्ति की तलवार ।
एकमात्र अध - गिरे हुए मन ही हैं ,
अब तेरे मंदिर , पावन आगार ।
तेरा यह निर्भयत्व
निर्भय तत्व
अर्धमृतक धीरज का है आधार ।।
(अग्निजा , १९७८)