भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निर्मोही / सुतिन्दर सिंह नूर
Kavita Kosh से
वह जब कहती है कि
बहुत निर्मोही हूँ मैं
उसके होंठ काँपते हैं
शब्द मचलते हैं
अवचेतन तक लहराते
मूक हो जाते हैं
आँखों के रास्ते कहते हैं
मोह तो सीमा है
क़ैद है
मुहब्बत असीम है
मुक्त है
उसके कान कपोलों तक
लाल हो उठते हैं
अंग-अंग बोलने लगता है
मैं कहता हूँ
तुम बस यूँ ही मिला करो
निर्मोही बनकर
मूल पंजाबी भाषा से अनुवाद : शांता ग्रोवर