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निर्वाक / अनुराधा महापात्र / उत्पल बैनर्जी
Kavita Kosh से
धूसर चिता अहा ! अर्जुन वृक्ष की टहनी पर
सजाकर रखी गई है
दिगन्त के पार
लहू के झरने की सूखी पीठ पर
रखा हुआ है पहाड़
मृत्यु के बाद अहा !
मुझे तुम्हारे मातृत्व की गन्ध महसूस होती है !
ख़ून से लथपथ जीभ से
भला कौन प्यार करना चाहता है ?
अकरुण गीतों के आघात से उतर आता है
प्रेमहीन अन्धकार ।
उस जुन्हाई और अन्धकार की लहरों को
समुद्र की खाई में पछींटता
अर्जुन का पेड़ क्यों धो आता है
अधजली चिता ?
धूसर पक्षी ने अहा !
तीरबिद्ध दृश्य के अन्त में
जिन धारदार आँखों से जितना खोजा था
उसे मैंने उखाड़ लिया है !
तुम अक्षरों के बाद आते हो
नंगे पैर
मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि
मिटते जाते दिगन्त के पार
तुम्हीं मेरे हो ।
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मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी