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निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) / अनीता सैनी

1.
अंतस के विचारों में मग्न मनस्वी
स्मृति-पन्नों में टोहती स्वयं की छवि
आत्मलीन हो कहे— बियाबान ही साथी,
एकांतवास विधना की थाती।
2.
जीवन-पथ के सब साथी झरे,
ज्यों पतझड़, पेड़ से पाती झरे।
उलझीं-उलझीं जब जीवन-लताएँ,
रथ खींचे संग सत-गाथाएँ।
3.
झाड़-झंकार के काँटे चुभे, जले पाँव,
वृक्षों की न छाँव मिली, न मिली ठाँव।
जेठ-दोपहरी की तपती रेत पर,
ज्यों हल जोते खेतिहर, अदृश्य खेत पर।
4.
कोरे आसमान ने सहलाया,
चाँद-सितारे संगी-साथी, सब ने बहलाया।
पवन ने प्रीत से लाड़ लड़ाया,
रश्मियों ने पथ पर उजास छलकाया।
5.
हाय! काली रात डराती बहुत थी,
गोद चाँदनी की सुहाती बहुत थी।
इच्छा-अनिच्छा का खेल था भारी,
मुक्त हुई कैसे— न जानूँ, क्रम अभी था जारी।
6.
फिर-फिर दुख रुलाता रहता,
हृदय भी नीर बहाता रहता।
दुख बीता या नयना सूखे,
दुख-सुख हुए पाषाण, अब न जीवन दुखे।
7.
कामना रही न कोई शेष, न कोई चाह,
मन के संतोष को मिली थी राह।
व्यग्र छलना अति चतुर रहती सवार,
हाय! उसी डगर पर मिलती बारंबार।
8.
मन टूटा, तन टूटा, टूटा न अटूट विश्वास,
मोह-माया का टूटा पिंजर, मुक्त हुई हर श्वास।
देह धरती पर जले दीप-सी, आत्मा में उच्छवास,
मनस्वी को मिला बुद्धत्व, पहना उन्हीं-सा लिबास।
9.
बुद्धतत्त्व की अन्वेषणा, मनस्वी कानन-कानन डोले,
बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले।
हे प्रिय! पहचानो नियति जीवन-पथ की,
कंकड़-पत्थर, झाड़-झंकार— गति जीवन-रथ की।
10
गरजते मेघों से क्यों चोटिल स्वयं को करना,
हवा की प्रीत, बरसात के भावों को समझाना।
भांति-भांति के भ्रम, भ्रमित कर भटकाएँगे,
मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव-दीप जलाएँगे।
11.
परीक्षा पृथ्वी पर, प्रीत के अटूट विश्वास की,
यों व्यर्थ न गँवाओ, प्रिय! अमूल्य लड़ियाँ श्वास की।
तुम पुष्प बन खिल जाना, मैं बनूँगा सौरभ,
तुम पेड़ बन लहराना, मैं छाँव बनूँगा पथ-गौरव।
12.
परोपकार में निहित, मानवता की सुवास हूँ मैं,
फल न समझना, प्रिय! रसों में मिठास हूँ मैं।
काया के श्रृंगार का न बोझ बढ़ाना तुम,
जीवन के अध्याय विरह को लाड़ लड़ाना तुम।
13.
हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना,
दग्ध हृदय पर, मधुर शब्दों के फूल बरसाना।
अंकुरित पौध सींचना, स्नेह के सागर से,
प्रेम-पुष्प खिलेंगे, छलकाओ सुधा मन-गागर से।
14.
सहसा निंद्रा से विचलित हो उठी मनस्वी,
हाय! भोर-रश्मियों ने क्यों लूटी मेरे स्वप्न की छवि!
प्रिय! प्रिय!! कह पुकार बौराई बियाबान में,
अनुगूँज से सहमी ध्वनि थी स्वयं के अंतरमन में।
15
ओह! कलरव की गूँज, लालिमा धरा पर छाई,
पात-पात हर्षाए, ज्यों प्रकृति दुग्ध से नहाई।
मन चाँदनी झरी, ज्यों शीतल आभा-सी बरस आई,
प्रीतम की पीर नहीं, मद्धिम हँसी होंठों ने छलक आई।
16.
अंतस-ज्योत्स्ना, मुख पर दीप्ति उभर आई थी,
उलझी-उलझी फिरे, अकुलाहट निखर आई थी।
पर्वत, पाषाण, पादप, पात जहाँ दृष्टि — वहीं बुद्ध,
काँटों की चुभन से प्रीत, प्रतीति में गवाई सुध।
17
फूलों ने स्वरूप स्वयं का बदला!
निशा से नीरस थे, प्रभात में खिलखिलाए!
उषा में रंग कसूमल — किसने है उड़ेला?
तेज़ रश्मियों ने या सुमन स्वयं मुस्कुराए।
18
आहा! एक बदरी आई, स्नेह-सजल हो,
करुणा के सुमन खिलाए! ममता बरसाई।
मिथ्या स्वप्न की डोरी में था चित्त उलझा,
हर्षित पलों की दात्री, प्रीत अँजुरी भर लाई।
19
झरना मानवता का, मन की परतें भिगोता,
वात्सल्यता की सुवास, सृष्टि में उतर आई।
करुणा की मूरत उतरी, मन-आँगन में,
भोर की लालिमा आँचल में स्नेह भर लाई।
20.
रश्मियों का तेज ज्यों डग भरती मानवता,
चुनरी पर धूप ने जड़े सतरंगी सितारे।
रेत पर पद-चिह्न बरखान से उभर आए,
दर्शनाभिलाषी भोर का तारा स्वयं को निहारे।
21
शीतलता लिए था एक झोंका मरुस्थल पर,
ममत्व की प्रतीति, निर्मलता शब्दों से संजोए।
भाव-विभोर मनस्वी के अंतस पर छवि उभर आई,
नवांकुर को छाँव, संवेदना की बौछार से पात भिगोए।
22.
वृक्ष पर बैठ खग, डाल से पंख खुजाते,
मद्धिम स्वर में किस्सा पर्वत पार का सुनाया।
एक नगरी मानव की, छाया है अविश्वास,
मसी के छींटे, उद्गार अंतस में उभर आया।
23.
विरक्तता भाव बरसा था धरा के आँचल पर,
लो! प्रकृति ने दौंगरा समर्पण का बिछाया।
अतृप्ति के भटके भाव में बिखरी चेतना,
ज्यों पुष्प मोगरे पर रंग धतूरे का छाया।
24.
अहं, द्वेष, क्रोध — अंतस् के हैं कुष्ठ-रोग,
पीड़ा से मति, मनोभावों की भ्रष्टता में भारी हुई।
नीलांबर के वितान पर उभरी कलझाइयाँ-सी,
वेदना की भीगी पंखुड़ियाँ क्षारी हुई।
25.
तीसरे पहर की पीड़ा, क्षितिज की लालिमा,
कपासी मेघों का हवा संग बिखर जाना।
एकाएक झरने-से बहते जीवन में ठहराव,
हलचल अवचेतन की, नयनों में उतर आना।
26.
संवेदनहीन हैं विचार, कलुषित मानव के,
पंख फैलाए व्याकुल मन से खग बोले।
पलकों की पालकी पर भाव सजाए,
कहो न खग! मनस्वी ने नयनों के पट खोले।
27.
हे सखी! गाथा विश्व में वैभव-संपन्नता संग,
समझ के दरिया में डूबे मानव-व्यवहार की।
आत्म-छटपटाहट, प्राबल्य-प्राप्ति की मंशा,
खंडित चित्त के किवाड़ों के दुर्व्यवहार की।
28.
अनभिज्ञ मानव समझे स्वयं को आत्मज्ञानी,
ज्यों कर्म-कारवाँ बढ़े कोलाहल की झंकार।
सत, रज, तम — ठूँठ हुए उजड़े चित्त के मनोभाव,
भ्रम-यवनिका, मन-दर्पण, धूल-मिट्टी, मोह-भार।
29.
द्वेष, क्रोध को धार लगाते, छूटा प्रीत का हार,
हृदय पाषाण, भाव मरु — लू के थपेड़े हैं स्वभाव।
ताप बढ़े काया का, ज्यों किरणों का प्रहार,
स्वार्थसिद्धता पट्टी आँखों पर — अतृप्त हैं भाव।
30.
नहीं! नहीं!! नहीं!!! खग, मानव ज्ञाता है, विश्वास,
जीवन कलाएँ अर्जित करना है इसका स्वभाव।
बोध-निर्बोध भाव-तत्त्व बाँधे, बंधुत्व अंबार,
पीड़ित पीड़ा में उलझा, समझे न विकारों का प्रभाव।
31.
निर्मल-निश्छल स्वभाव है करुणा का अवतार,
भावों-अभावों से जूझता, टाटी सुखों की बाँधता।
बंजर जीवन भाता किसको? हे खग!
विचार उचटते अंतरमन के, सुख का छप्पर टूटता!
32.
अविश्वास बढ़ा भू पर — देख! छाए बादल विश्वास के,
पुरवाई-प्रीत, बरसात आस्था के नवांकुर खिलाएगी।
वृक्षों पर पात संबंधों के अंकुरित हो खिल जाएँगे,
डाली-डाली लदी फूलों से, धरा दुल्हन-सी सज जाएँगी।
33.
द्वेष धुलेगा एक दिन, मन-दर्पण रश्मियों-सा चमकेगा,
हे खग! आभा मुख पर, पुलकित मानवता हर्षाएगी।
निश्छल झरना झरे कर्मण्यता का, हैं सौरभ से भाव,
शब्द-सुमन सुवासित हो, हृदय शीतल कर जाएँगी।
-0-
बरखान, एक प्रकार का बालू का टीला है जो अर्ध-चंद्राकार होता है. ये टीले उन रेगिस्तानों में बनते हैं जहाँ हवा एक ही दिशा से लगातार बहती है. बरखान की एक तरफ की ढलान धीमी और उत्तल होती है, जबकि दूसरी तरफ की ढलान तेज और अवतल होती है. हवा की दिशा में, बरखान के दो 'सींग' या 'शृंग' निकले हुए होते हैं।