निर्वासन / उत्पल बैनर्जी
अपनी ही आग में झुलसती है कविता
अपने ही आँसुओं में डूबते हैं शब्द।
जिन दोस्तों ने
साथ जीने-मरने की क़समें खाई थीं
एक दिन वे ही हो जाते हैं लापता
और फिर कभी नहीं लौटते,
धीरे-धीरे धूसर और अपाठ्य हो जाती हैं
उनकी अनगढ़ कविताएँ और दुःख,
उनके चेहरे भी ठीक-ठीक याद नहीं रहते।
अँधेरा बढ़ता ही जाता है
स्याह पड़ते जाते हैं उजाले के मानक,
जगर-मगर पृथ्वी के ठीक पीछे
भूख की काली परछाई अपने थके पंख फड़फड़ाती है,
ताउम्र हौसलों की बात करने वाले
एक दिन आकंठ डूबे मिलते हैं समझौतों के दलदल में,
पुराने पलस्तर की मानिन्द भरभराकर ढह जाता है भरोसा
चालाक कवि अकेले में मुट्ठियाँ लहराते हैं।
प्रतीक्षा के अवसाद में डूबा कोई प्राचीन राग
एक दिन चुपके से बिला जाता है विस्मृति के गहराई में,
उपेक्षित लहूलुहान शब्द शब्दकोशों की बंद कोठरियों में
ले लेते हैं समाधि,
शताब्दियों पुरानी सभ्यता को अपने आग़ोश में लेकर
मर जाता है बाँध,
जीवन और आग के उजले बिम्ब रह-रह कर दम तोड़ देते हैं।
धीरे-धीरे मिटती जाती हैं मंगल-ध्वनियाँ
पवित्रता की ओट से उठती है झुलसी हुई देहों की गन्ध,
नापाक इरादे शीर्ष पर जा बैठते हैं,
मीठे ज़हर की तरह फैलाता जाता है बाज़ार
और हुनर को सफ़े से बाहर कर देता है,
दलाल पथ में बदलती जाती हैं गलियाँ
सपनों में कलदार खनकते हैं,
अपने ही घर में अपना निर्वासन देखती हैं किसान-आँखें
उनकी आत्महत्याएँ कहीं भी दर्ज़ नहीं होतीं।
अकेलापन समय की पहचान बनता जाता है
दुत्कार दी गई किंवदंतियाँ राजपथ पर लगाती हैं गुहार
वंचना से धकिया देने में खुलते जाते हैं उन्नति के रास्ते
रात में खिन्न मन से बड़बड़ाती हैं कविताएँ
निःसंग रात करवट बदल कर सो जाती है!!