भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निर्वासित तुलसी / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
लोग अस्मित खोने अपनी
धीरे-धीरे गॉंव
राजपथों के सम्मोहन में
पगडंडी उलझी
निर्धनता अनबूझ पहेली
कभी नहीं सुलझी
अनाचार के काले कौए
उड़-उड़ करते कॉंव
राजनीति की बॉंहे पकड़ीं
घेर लिया है मंच
बंटवारा बन्दर सा करते
सचिव और सरपंच
पश्चिम का परिवेश जमाये
अंगद जैसा पाँव
छोड़ जड़ों को निठुर
शहर की बातों में आता
लोकगीत को छोड़
गीतिका पश्चिम की गाता
सीख रहीं हैं गलियॉं चलना
आज शकुनि-से दॉंव
दंश सोतिया झेल रहीं हैं
बूढ़ी चौपालें
अपनी ही जड़ लगीं काटने
बरगद की डालें
ढूंॅढ़ रही निर्वासित तुलसी
घर में थोड़ी छॉंव