निर्वासित / कंस्तांतिन कवाफ़ी / सुरेश सलिल
ये अब भी सिकन्दरिया के रूप में अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं ।
ज़रा चलिए, हिप्पोड्रोम पर समाप्त होने वाले सीधे रास्ते पर,
राजप्रासाद और स्मारक देख कर हैरत में पड़ जाएँगे ।
युद्धों से जो भी क्षति इसने झेली
जितना भी सिमट कर छोटा हुआ
तब भी एक अद्भुत शहर !
और फिर, सैर-सपाटा, किताबें
तरह-तरह की लिखाई-पढ़ाई, समय चलता चला जा रहा ।
शामों में हम जुटते हैं सागर किनारे की बस्ती में
हम पाँच [सभी, स्वाभाविक ही फर्जी नामों से]
और, अब भी यहाँ बचे रह गए थोड़े से यूनानियों में से कुछेक ।
कभी कभार चर्चों से जुड़ी चर्चा करते हैं
[यहाँ लोगों का रोम की तरफ झुकाव नज़र आता है]
और कभी साहित्य की।
किसी दिन नोनोस की कुछेक काव्यपंक्तियाँ पढ़ते हैं :
क्या तो बिम्ब-विधान, क्या लय, क्या पद विन्यास,
क्या सुरीलापन !
उमंग से भरपूर कितना हमारा प्रिय पानोपोलितान !
इस तरह दिन व्यतीत हो रहे,
और हमारा यहाँ रुकना उबाऊ नहीं,
हरदम तो ऐसे ही नहीं चलते रहना ।
अच्छी ख़बरें आ रही हैं,
जैसा स्मिरना में हो रहा, वैसा कुछ यहाँ नहीं होता
तो अप्रैल में निश्चय ही हमारे साथी एपिरोस से चल पड़ेंगे ।
अतः किसी न किसी रूप मेंऋ हमारी योजनाएँ
पक्के तौर पर कारगर साबित हो रही हैं
और हम चुटकी बजाते बासिल का तख़्ता पलट देंगे
और जब यह हो लेगा, हमारा मौक़ा आना ही है।
[1914]
इस कविता का सन्दर्भ सिकन्दरिया पर अरबों की जीत [641 ई०पू०] और उसके कुछ ही समय बाद बिजान्तीनी सम्राट माइकेल तृतीय की हत्या से जुड़ता है। माइकेल तृतीय के सहयोगी सम्राट बासिल प्रथम [867-886]ने उसकी हत्या की थी। वह मकदूनी राजवंश का संस्थापक था। उसी दौरान कुस्तुन्तुनिया के पैट्रियार्क फोतिओस को सम्राट ने अधिकार-च्युत कर दिया और उसके समर्थकों को निर्वासित कर दिया। कवि नोनुस [5वीं सदी] मिस्री-यूनानी परम्परा का बहुत लोकप्रिय कवि था। उसे ‘पानोपोलितान’ भी कहा जाता था। इस तरह इस कविता के ‘‘निर्वासित’’, अरबों के विरुद्ध, बिजान्तीनी, रोमन कैथोलिक और यूनानी भावनाओं के प्रतीक माने जा सकते हैं। [यह कविता कवि के जीवन में प्रकाशित नहीं हुई थी।]
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल