निर्वेद / नरेन्द्र शर्मा
मन! अब विजन बन में चलो, बनफूल बन फूलो-फलो!
तुम चंद्रिका की बूँद-से, सुकुमार मरकत-पत्र पर
शोभित रहो जब तक रहो, हिमहास बन तन-वृन्त पर,
अब अश्रु से मुस्कान बनने, मन! विजन बन में चलो!
हर साँस में सुख-शान्ति की मधुगंध हो, मधुपी न हो;
तुम स्वयं अपने मधु बनो, मधुपात्र; मधुपायी रहो!
जो मृषा उसकी क्यों तृषा? मन! अब विजन बन में चलो!
अब जो गले का हार है, कल खटकता बन शूल है!
कब तक समय अनुकूल है? कल फूल, अब वह धूल है!
यह नियम है इस वाटिका का, मन! विजन बन में चलो!
कोई न देखेगा तुम्हें, कोई चुनेगा भी नहीं,
पर दूसरे की दृष्टि से अँकती सही कीमत नहीं!
यदि भेद अपना जानना हो, मन! विजन बन में चलो!
जब तक खिलो खिलना, सहज फिर विहँस झर जाना!
चलो, मत चाहो किसी का विदा देते नयन भर लाना!
बस एक बार निहार उपवन, मन! विजन बन में चलो!