निविड़-विपिन, पथ अराल;
भरे हिंस्र जन्तु-व्याल।
मारे कर अन्धकार,
बढ़ता है अनिर्वार,
द्रुम-वितान, नहीं पार,
कैसा है जटिल जाल।
नहीं कहीं सुजलाशय,
सुस्थल, गृह, देवालय,
जगता है केवल भय,
केवल छाया विशाल।
अन्धकार के दृढ़ कर
बंधा जा रहा जर्जर,
तन उन्मीलन निःस्वर,
मन्द्र-चरण मरण-ताल।