निशापुत्र / मोहिनी सिंह
कभी हवा को गले लगाकर देखा है?
वो तुम्हारा एक भी अंग अनछुआ नहीं छोड़ती।
कभी रौशनी को चूमने की कोशिश की है?
वो तुम्हारे पुरे चेहरे पे दमक बिखेर देती है।
होते हो तो पूरे मेरे हो जाओ वर्ना
अधूरे से तो मेरे ख्वाबों को भी छूकर न गुजरो
जिसको चीर के उगे उसकी गोद में ही ढलता है
हाँ ये सूरज रात की ही कोख में तो पलता है
टिमटिमाती रौशनी है क्यों हज़ार नैनों में
किसको दिया है प्रकाश माँ बनी इन रैनों ने?
जननी ने मूंदी है आँखे पूत को जगाने में
और किस की आग में ये तीन पहर जलता है?
हाँ ये सूरज रात की ही कोख में तो पलता है
प्रसव वेदना चीखती है रात्रि का मौन बनके
गर्भ जल रहा, आ रहा देखो पुत्र कौन बनके
कालिमा से रंग गई नभ का चिराग लाने में
चंद्रमुख पे और कौन कालिख रोज़ मलता है?
हाँ ये सूरज रात की ही कोख में तो पलता है
सूर्य से बरसे प्रभा बन वो निशा की ममता है
हाँ ये सूरज रात की ही कोख में तो पलता है