निशा-पर्व / शिवनारायण / अमरेन्द्र
मधु पूर्णिमा के साँवरी रात में
कुच्छु पल
जबेॅ रेलिंग सें बंधलोॅ छत पर
कोय एकान्त सफर रोॅ थकान केॅ
हिलतें गुच्छोॅ-गुच्छोॅ गुलमोहर
अपनोॅ ललैन्होॅ हँसी से तृप्त करेॅ
तबेॅ तलाश होय छै
कोय चिर अपरिचित में
एक टा परिचित गन्ध रोॅ।
एक आदिम प्यास रोॅ तृप्ति में
नैं जानौं
सृजन रोॅ कतेॅ बीया बिखरलोॅ रहै छै।
अभिसारित क्षणों रोॅ भूख
न जानेॅ कत्तेॅ-कत्तेॅ सृष्टि
करी लै छै समाहित
आपनोॅ अतृप्त कोखी में।
हेना में कोप सुजाता हाथोॅ रोॅ
मधुमास के भरखर राती में
अंजुरी भरी खीर के स्वाद
जानेॅ तेॅ कत्तेॅ जन्मोॅ के
चोटैलोॅ स्मृति केॅ मुक्त करी दै छै।
जानेॅ कत्तेॅ-कत्तेॅ भाङलोॅ आत्मा
टहटह मधुर इंजोरिया में
ढूंढ़ी लै छै आपनोॅ अर्थ
आरो आदिम लिन रोॅ निशा-पर्व
ऋतुचक्र के परिक्रमा से पहिलैं
करी दै छै पूरा
सृष्टि आलोक रोॅ निर्वाण-कथा।