निशा और उषा / बरीस पास्तेरनाक / हरिवंश राय बच्चन
उषा काल में कहा डाल ने जब सहला चिड़ियों का पर,
जागो, जागो, आने को है गाने की बेला सस्वर,
फटक मेह-भीगे पंखों को वे नीड़ों से निकल पड़ीं,
मलय पवन पर कलिका झूली, तन से जल की बून्द झड़ी ।
हुई निशा में सहसा वर्षा, जल की ऐसी बाढ़ चली
लगा, नहीं यह रहने देगी एक पेड़, फल, फूल, कली;
युग-युग के आँसू संचित कर मैंने जिसको सींचा था
उसे बहा क्या ले जाएगी एक जलधि की लहर बली ।
दुख की घड़ियों में यह बगिया मेरे मन में आई थी,
दुख की घड़ियों में ही मैंने इसकी जड़ बिठलाई थी,
दुख की घड़ियों में ही इसको उगते-बढ़ते देखा था,
कल ही पहले-पहल निशा में इसकी छवि मुसकाई थी ।
सारी रात प्रभंजन मेरी खिड़की को खटकाता था,
सारी रात प्रभंजन मेरे सपनों को डरपाता था,
द्वार खुला, घुस मलय पवन का एक सरस झोंका बोला —
वृष्टि न थी, तेरे आँसू का कोई मोल चुकाता था ।
उषा काल में जगकर, निशि के दुख- दुस्वप्नों को भूली,
गन्धवाह के मधुर प्रवाह में कलियाँ पड़ती थीं फूली,
फूल खिले पड़ते थे अपनी खोल पंखुरियों-सी पलकें,
झूम रहे थे तरुवर, लतिका की लहराती थीं अलकें ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन