निश्चल निशा प्रेतनी बनकर / संगम मिश्र
डाले है जीवन में डेरा।
दूर बहुत है क्रूर सवेरा।
एक भयानक अन्धकार ने
अपना नव साम्राज्य बनाया।
हर आकृति दर्शित है जिसमें
चन्द्रग्रहण की काली छाया।
दूर लक्ष्य, दिग्भ्रमित पथिक है
भटक रहा है जर्जर स्यन्दन।
किन्तु चमकती नहीं कहीं भी
किसी किरण की स्वर्णिम काया।
कालरात्रि में नंग धड़ंगा
नृत्य कर रहा तमस घनेरा।
दूर बहुत है क्रूर सवेरा।
जीवन की प्रत्येक दिशा में
एक विनाशक तम संकुल है।
अन्त नहीं, आकार अनिश्चित
अनियंत्रित अतिरेक पृथुल है।
क्षण भर भी निस्तार न मिलता
निष्क्रिय हैं संसाधन सारे।
है असह्य आघात समय का
दुखियारा तन मन व्याकुल है।
निर्निमेष अतुलित घमण्ड में
अट्टहास कर रहा अँधेरा।
दूर बहुत है क्रूर सवेरा।
प्राण फँसा है एक अनिश्चित
दुखदायक विकराल विवर में।
रोम रोम जल रहा निरन्तर
केवल आह भरी है स्वर में।
सतत प्रतीक्षा करता है मन
अब केवल उस शुभ अवसर की,
जब विद्युत के फूल खिलेंगे
गहन तमिस्रा के अम्बर में।
कृपा करो! नवज्योति जगा दो
हे जगती के श्रेष्ठ चितेरा।
दूर बहुत है क्रूर सवेरा।