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निषेध / प्रताप सहगल

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ओ नचिकेता !
तीन दिन के इन्तज़ार के बाद
तुम्हें तीन वर मिले
और मुझे वर्षों की इन्तज़ार के बाद मिले
अन्धे बैल
टूटे हुए रथ
और ध्वस्त हाथ .

मेरी व्यतीत मनीषा ने
क्यों ओढ़ लिया था इतना बड़ा झूठ?

ओ मेरे समानधर्मा मित्र !
तुमने भी तो परम्परा को मानने से कर दिया था इन्कार
और अपने सत्य की तलाश तुमने स्वयं की थी
इन्कार और विरोध की श्रृंखला में
एक कड़ी और जुड़ गई है
एक पिता की बात/आज फिर उड़ गई है.
तुमने इस वृत्ताकार पर
काले धब्बों को नहीं भोगा
किसी ने तुम्हारे कानों में बारूद नहीं उंडेला
जूठी पत्तलों पर टूटती हुई पसलियों को भी तुमने नहीं देखा
और न ही बंटते बिकते बिकते शरीर/तुम्हारी आंखों में तैरे
वरना तुम्हारा तलाशा हुआ सत्य कुछ और होता
तुम्हारा स्वर व्यर्थं का भार न ढोता
अब तो शतरंज के मोहरे बनने में बड़ा सुख है
ताश का जोकर होना महत्वपूर्ण उपलब्धि
खेल के मैदान में/बाल की तरह पिटना
गौरव है
और अन्धेरे तथा नींद में झूलते किसी शहर पर
दो-एक पुच्छल तारे फेंक देना
पुरुषार्थ है-शौर्य है.

मैंने इन्हीं चट्टानों में से एक चेहरा तराशा
मटियाले पानी में बिम्ब बनाए
उलझे हुए जंगलों से एक जोड़ी आंखों को खोजा
और दलदल में रेखाचित्र संवारे
और एक लम्बी तलाश के बाद
जो चेहरा मुझे मिला
उस पर कई खरोंचो के निशान हैं.
राशन की दुकान से वियतनाम के युद्ध तक
और बिरला मन्दिर से हालीवुड तक
मवाद से भरी नलिकाएं
हर शिवजी के गले से लिपटी हैं
छापेखाने में लटक रहे हैं मेरे कई चेहरे
और मैं हर चेहरे से
हर चेहरे को ढकने का करता हूं प्रयास
उल्लूनुमां आँखें हो गईं उदास
मेरी बगलों के बाल लम्बे होकर
हवा में फैल गए हैं
और अब/मैं यंत्रस्थ
अपने नए-नए संस्करण निकाल रहा हूं
अपने ही नाम को बार-बार/
हवा में उछाल रहा हूं
ओ नचिकेता !
तुम्हारे सत्य को मैं
धीरे से टाल रहा हूं.