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निष्काम प्रीति / विनीत मोहन औदिच्य

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चाल गज की चले मान से वो भरी
कर नदी पार वो धार से अति डरी
रूप की राशि से ये मुदित मन हुआ
गात कंपित हुआ भाल उसने छुआ।

नैन हैं मद भरे होठ भी अध खुले
केश बिखरे हुए चांदनी में धुले
लाल अधरों सखी लाज सी खेलती
काम का तीव्रतम वार सा झेलती ।

हाल बेहाल कर ज्वार जब जब उठा
प्रेम का पत्र भी कामना ने लिखा
तीव्र सांसें चलीं बढ़ गई धड़कनें
मैल मन का धुला मिट गई अड़चनें ।

रात भर श्याम ने नृत्य जी भर किया
प्रीति निष्काम की ज्योति से भर दिया।।
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