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निष्क्रिय तन है, नीरस मन है / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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निष्क्रिय तन है, नीरस मन है
वह जीवन भी क्या जीवन है

कौड़ी बदले खो मत पगले!
यह जीवन अनमोल रतन है

तू तो नित है, अजर-अमर है
तन यह तेरा दिव्य वसन है

मोह जाल में फँस मत मानव!
मोह प्रबल मन का बंधन है

अनासक्त को सम हैं दोनों
क्या बस्ती, क्या निर्जन वन है

काँटों से तन जो बिंधवाता
पाता सुरभित वही सुमन है

हरियाली में हँसने वालो
सदा नहीं रहता सावन है

नाच नहीं जो जाना करता
वह कहता टेढ़ा आंगन है

दुख है कभी, कभी सुख साथी
नाम इसी का तो जीवन है

मंज़िल उसको ही मिलती है
जिसमें धीरज और लगन है

सुन्दरता मिल सकी न जिसको
वह कहता मैला दरपन है

मतलब का संसार, किसी का
सुनता कौन करूण क्रन्दन है

धनी वही जिसके मानस की
थैली में साहिस का धन है

मोती लगते हाथ उसी के
जिसे क्षुद्र सा सिन्धु गहन है

विजय-वधू ने वरा उसे, जो
निकला सिर से बांध क़फ़न है

यहाँ फूल भी हैं कुछ जिनकी
काँटों से भी दुसह चुभन है

लगी ठगों की भीड़, पता क्या
कौन दोस्त है या दुश्मन है

ध्वनि मयूर की, काम सर्प का
अपनों का अब यही चलन है

दो दिन की ये मस्त बहारें
दो दिन की यह मलय पवन है

जी भर सुन लो आज, ‘मधुप’ का
नित्य नहीं मिलता गुंजन है