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निष्ठा / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
तुम धागा थे
सदा रहे,
मैं हाथों से
फिसल-फिसलकर
बचती रही
बँधने से
मेरे उस न बँधने में,
मेरे फिर-फिर गिरने में,
आश्वासन क्या
तुम्हीं नहीं थे?
लौटी जब-जब
हार-हार मैं,
हाथ पकड़ने
तुम्हीं मिले
धागे की ऐसी निष्ठा!
मैं मोती, पानी-पानी,
इसी तरह से लँगड़ाती क्या,
हर युग में
प्रेम कहानी?