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निष्पत्ति / अज्ञेय

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 निष्पत्ति
प्रियतमे! तुम मुझे कहती हो कि मैं उस अनुभूति के बारे में लिखूँ, पर मैं लिख नहीं पाता।
मैं उस पक्षी की तरह हूँ जो सूर्य के तेज को छू कर आया है, किन्तु जो थका हुआ पंख खोले पृथ्वी पर पड़ा है, जो सूर्य की ओर भी दीन दृष्टि से देखता है और कुछ दूर पर स्वच्छ नीर के सरोवर की ओर भी, किन्तु न उड़ पाता है और न उस नीर तक ही पहुँच पाता है...
मैं अब भी उस अनुभूति की तेजोमय पीड़ा से काँप रहा हूँ-किन्तु वह गगनचुम्बी उड़ान...
प्रियतमे! तुम मुझ से कहती हो कि मैं उस अनुभूति के बारे में लिखूँ पर मैं लिख नहीं पाता...

लाहौर, अप्रैल, 1934