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नींद-१ : टहल-बूल रही है नींद / सुरेन्द्र स्निग्ध
Kavita Kosh से
ऊँघता हुआ सा है
हजारीबाग का बस स्टैण्ड
विभिन्न दिशाओं को
जाने के लिए बसें
आ-आकर रुक रही हैं यहाँ
इक्के-दुक्के यात्री
उतर रहे हैं —
ढूँढ़ रहे हैं शौचालय
या कि कोई चाय की दुकान !
बजती है चाय की केतली
और ख़ुशबू बिखेरती है गरम-गरम चाय
चुस्की लेते हैं
ग़रीब-गुरबा यात्री
दुकान मालिक
रात का खाना खाने के लिए देता है औडर
नौकरों को !
छोटे-छोटे
मैले-कुचैले नौकर
जिनकी आँखों से
छलक रही है नींद
सेंक रहे हैं —
रोटियाँ
गर्म कर रहे
बची-खुची सब्ज़ियाँ
नींद की गहरी खाइयों में
फूल रही हैं रोटियाँ
सोंधी गन्ध
तोड़ रही है
दुकान की हद
नींद टहल-बूल
रही है
बस स्टैण्ड में