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नींद-३ : नींद की झीनी दीवार / सुरेन्द्र स्निग्ध

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बहुत तड़के
या यूँ कहिए
समय के पहले ही
हमारी बस
पहुँच गई है हजारीबाग ।

इक्के-दुक्के
मटरगश्ती करते
या ग्राहकों को
पटाते
नज़र आ रहे हैं
छोटे-मोटे दुकानदार ।


इस शहर
के भूगोल से
सर्वथा अपरिचित
मैं चुपचाप बैठ गया हूँ
चाय की दुकान पर,
समय काटने के लिए
नींद की नदी पाटने के लिए
बनवाता हूँ
बिना चीनी की चाय ।


मुझे लेने
आएँगे मित्र
शम्भु बादल
चार के बाद
अभी तो
तीन-तीस ही हुआ है ।

काट रहा हूँ बोरियत
काट रहा हूँ समय
थाह रहा हूँ
चाय की प्याली में
नींद की गर्म नदी ।

पता नहीं सपनों की किन पगडण्डियों पर
घूम-फिर रहा होगा सूरज
कौन टोकेगा उसे
कौन रोकेगा उसे ।

अभी तो सोए ही होंगे
मेरे कवि मित्र शम्भु बादल ।