भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद-3 / मणिका दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम को दूरदराज के गाँव में लोरी सुनकर
अरे नहीं
बच्ची की आकुल पुकार सुनकर
आएगी या नहीं आएगी मैं नहीं जानती

फिर भी
फिर भी कभी-कभी तुझे पुकारने को जी चाहता है
उदास शाम के चौबारे पर
खड़े होकर
गहरी रात के सर्द सीने से
ओ नींद उतर आ उतर आ
एक डग, दो डग नहीं
बगुले के पंख लगाकर तू उड़ कर आ

उड़ कर आ मेरे सूने सीने में
और कितना चलूँगी
अंधेरे में
और देखूँगी कितनी राह
धूप के लिए

मृतक की तरह
सर्द हो गए हैं सपने
बगुले के पंख लगाकर तू उड़ कर आ
उड़ कर आ...

मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार