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नींद आई तो ख़्वाब देखेंगे / विजय किशोर मानव

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नींद आई तो ख़्वाब देखेंगे
इस दफ़ा बेहिसाब देखेंगे

तमाम आस-पास के चेहरे
उतारकर नक़ाब देखेंगे

जिसको मिलना है धूल में आख़िर
शाख़ पर वो गुलाब देखेंगे

सोई बस्ती में हुक्मरानों की
जागता इंक़लाब देखेंगे

सबके खाते वहां खुले होंगे
क्या है, किसका हिसाब देखेंगे

ताजपोशी फ़क़ीर की होगी
चुप खड़े ये नवाब देखेंगे

घेर लेंगे उन्हें सवालों से
देंगे कैसे जवाब देखेंगे