भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नींद उड़ गई है / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
नींद उड़ गई है!
उगते अस्त हुआ रवि जिस दिन
आँधी उठी, उड़े सुख के तृण;
सिमट गए सब दृश्य; किस क़दर
दृशि सिकुड़ गई है!
बाहर कोई क्या पहचाने!
घायल की घायल ही जाने;
मृग से उसकी नाभि, सर्प से
मणि बिछुड़ गई है!
भीतर जैसी है यह माटी,
कैसे निकसे, ऐसी काँटी?
वज्रहृदय में गड़कर कोई
याद मुड़ गई है!