बाँट में,
अपने हिस्से का सब छोड़,
कोने में पड़ी
सूत से बुनी वह
मंजी अपने साथ ले आई,
जो पुरानी, फालतू समझ
फैंकने के इरादे से
वहाँ रखी थी.
बेरंग चारपाई को उठाते
बेवकूफ लगी थी मैं,
आँगन में पड़ी
बचपन और जवानी का
पालना थी वह.
नेत्रहीन मौसी ने
कितने प्यार से
सूत काता, अटेरा औ'
चौखटे को बुना था,
टोह - टोह कर रंगदार सूत
नमूनों में डाला था.
चौखटे को कस कर जब
चारपाई बनी
तो हम बच्चे सब से
पहले उस पर कूदे थे.
उसी चारपाई पर मौसी संग
सट कर सोते थे,
सोने से पहले कहानियाँ सुनते
और तारों भरे आकाश में,
मौसी के इशारे पर
सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.
और फिर अन्दर धंसी
मौसी की बंद आँखों में देखते--
मौसी को दिखता है----
तभी तो तारों की पहचान है.
हमारी मासूमियत पर वे हँस देतीं
और करवट बदल कर सो जातीं,
चन्दन की खुश्बू वाले उसके बदन
पर टाँगें रखते ही
हम नींद की आगोश में लुढ़क जाते.
चारपाई के फीके पड़े रंग
समय के धोबी पट्कों से
मौसी के चेहरे पर आईं
झुरियाँ सी लगते हैं.
जीवन की आपाधापी से
भाग जब भी उस
चारपाई पर लेटती हूँ,
तो मौसी का
बदन बन वह
मनुहार और दुलार देती है .
हाँ चन्दन के साथ अब
बारिश , धूप में पड़े रहने
और त्यागने के दर्द की गंध
भी आती है,
पर उस बदन पर टांगे
फैलाते ही नींद चली आती है...