भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नींद तो ख़्वाब हो गई शायद / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
					
										
					
					नींद तो ख़्वाब हो गई शायद 
जिंस ए नायाब हो गई शायद 
अपने घर की तरह वो लड़की भी 
नजर ए सैलाब हो गई शायद 
तुझको सोचूँ  तो रोशनी देखूँ 
याद महताब हो गई शायद 
हिज्र के पानियों में इश्क की नाव 
कहीं गर्क़ाब हो गई शायद 
चन्द लोगों की दस्तरस में है 
ज़ीस्त कमख्वाब हो गई शायद
	
	